Holi ka Danda Ropne Ka Rahasya: भारत में इस वर्ष होली का त्यौहार 25 मार्च (सोमवार) को मनाया जा रहा हैं। यह हिंदुओ का एक प्रमुख त्यौहार हैं। देशभर में होली से एक माह पूर्व माघ पूर्णिमा को होली का डांडा रोपने की परंपरा रही है, जो आजकल धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। आज के समय में होली का डंडा सिर्फ एक-दो दिन पहले ही रोपकर खानापूर्ति की जाती है। लेकिन, आज भी कई ऐसी जगह हैं, जहां पुरानी परंपरा को यथावत निभाया जा रहा हैं।
मुख्य धारा की मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, राजस्थान के जालौर में आज भी माघ मास की पूर्णिमा को होली का डंडा रोप दिया जाता हैं। कई वर्षों से जालौर में होली का डांडा भक्त प्रहलाद चौक पर रोपा जाता रहा हैं, संभवतया क्षेत्रवासी इस वर्ष भी इस परंपरा का निर्वहन करेंगे। डंडा रोपने के साथ ही, शहर के मंदिरों में फागोत्सव शुरू हो जाता है। मंदिरों में फाल्गुन के साथ श्रद्धालु अबीर, गुलाल व फूलों के साथ ठाकुरजी के संग होली खेलना शुरू कर देते हैं।
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गाड़ते हैं दो-दो होली के डांडे
ठाकुर जी के साथ होली खेलने का फागोत्स्व पूरे महीने चलता है। स्थानीय लोग कहते है कि, शहर में कई जगह पर दो डांडे स्थापित किए जाते हैं, जिनमें से एक डांडा होलिका का प्रतीक तो दूसरा डांडा प्रहलाद का प्रतीक होता हैं। इन डंडों को गंगाजल से शुद्ध करने के बाद, इनके आस-पास गोबर के उपले, लकड़ियां, घास और जलाने वाली और चीजों का ढेर लगा दिया जाता हैं। अंत में होलिका दहन (Holika Dahan 2024) वाले दिन उसे जला दिया जाता है।
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होलिका में जलती हैं बुरी नजर
होली का डंडा एक प्रकार का पौधा होता है, जिसे सेम, रतन ज्योत का पौधा भी कहते हैं। होली के डंडे के आसपास गाय के विशेष प्रकार के गोबर के उपले लगाए जाते हैं, जिन्हें भरभोलिए कहते हैं। भरभोलिए गाय के गोबर से बने वो उपले होते है, जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में रस्सी डाल कर माला तैयार की जाती हैं। एक माला में 7 भरभोलिए होते हैं। होलिका दहन से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घुमा कर फेंकने की परंपरा रही हैं। रात्रि को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ ही जला दी जाती है, आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।