बात जब खो-खो के खेल ही होती है तो मैं और मेरे जैसे कई लोगों को अपना बचपन जरूर याद आता है। एक समय था जब स्कूलों में यह खेल काफी ज्यादा खेला जाता था। लेकिन समय के साथ-साथ इस खेल की लोकप्रियता हमारे समाज ही नहीं बल्कि देश में काफी घटी है। इन सब के बावजूद स्टेट और नेशनल लेवल पर कई ऐसे धुरंधर खिलाड़ी है, जो आज भी इस खेल को जिंदा बनाये रखे है। उन्ही में से एक है अजय मांधरा, जिनके नाम से शायद आप अनजान होंगे।
बचपन की शान रहा हमारा खो-खो का खेल
जी हां अजय मांधरा खो-खो के खेल का वो खिलाड़ी है, जिसने साल 2018 में इंग्लैंड में हुए खो-खो के पहले इंटरनेशनल टूर्नामेंट में देश को गोल्ड पदक दिलवाया। इस बड़ी उपलब्धि के बावजूद अजय मांधरा को न तो सरकार की तरफ से कोई सहायता मिली और ना ही मीडिया ने उनकी उपलब्धि को जनता के सामने लाने का प्रयास किया। यही वजह है कि कभी बचपन की शान रहा खो-खो का खेल आज अपनी वही पहचान पाने को काफी संघर्ष कर रहा है।
अजय मांधरा ने दिलाया था खो-खो में गोल्ड
बात करें अजय मांधरा की तो वह देश के उस क्षेत्र से आते है जो लंबे समय से नक्सल प्रभावित समस्याओं से ग्रसित रहा है। ओडिशा के मालाकनगिरी से संबंध रखने वाले अजय मांधरा ने खो-खो के खेल में गोल्ड दिलाकर इस खेल को एक नया जीवन देने का जो प्रयास किया है, वह काफी सराहनीय है। अजय की इस उपलब्धि के बावजूद अभी तक यह खेल लाइमलाइट पाने में नाकाम रहा। साल 2018 में खेलो इंडिया गेम्स में खो-खो के खेल को भी शामिल किया गया था।
बेटे ने बढ़ाया दिहाड़ी मजदूर पिता का मान
अजय इंग्लैंड में हुए खो-खो के पहले अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में उस भारतीय दल का हिस्सा रहे थे, जिसने फाइनल मुकाबले में मेजबान इंग्लैंड को हराया था। अजय बोंडा जनजाति से संबंध रखते है, जोकि देश की अति पिछड़ी जनजातियों में शुमार की जाती है। अजय का जीवन काफी संघर्षों से भरा रहा है। दिहाड़ी मजदूरी करने वाले अजय के पिता ने भी अपने बेटे के सपने को पूरा करने के लिए दिन-रात मेहनत की। उसी का परिणाम आज सभी के सामने है।
अजय के कोच की सरकार से मदद की गुहार
अजय के कोच कालंदी चरन राउत कहते है कि, यदि अजय को सरकार की तरफ से आर्थिक सहायता मिले तो वह इस खेल में और भी अच्छा प्रदर्शन कर सकते है और देश का मान बढ़ा सकते है। फिलहाल अजय आगामी खो-खो चैंपियनशिप की तैयारियों में व्यस्त है और अपना पूरा ध्यान उसी पर फोकस कर रहे है। खो-खो की गुमनामी का उदारहण यह है कि, अजय ही नहीं शायद ही किसी खो-खो प्लेयर के नाम से आप और हम परिचित होंगे।
क्रिकेट ने खो-खो को किया स्कूलों से रिप्लेस
बात साल 2003 की है, जब भारतीय क्रिकेट टीम ने दक्षिण अफ्रीका में हुए विश्व कप के दौरान फाइनल में जगह बनाई थी। ऐसे में क्रिकेट की लोकप्रियता देश में तेजी से बढ़ी और खो-खो का खेल स्कूल-कॉलेजो से गायब होने लगा। लेकिन हमारा मानना है कि, यदि क्रिकेट से परे अन्य खेलों के लिए भी खेल संघों और सरकार थोड़ा ध्यान देवें तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई बड़ी उपलब्धियां प्राप्त की जा सकती है। हमें उम्मीद है ऐसा दिन भी हमारे देश के लिए जल्दी आएगा।
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